Thursday, September 29, 2011

ऋषभदेव के सुगंधित मल की खुश्‍बू 10 योजन लगभग 30 मील (अर्थात 80 किलोमीटर)

भागवत पुराण में है कि वह( ऋषभ देव) लेटे लेटे  ही खाने, पीने और मलमूत्र त्‍यागने लग, अपने मल से सने हुए वह लेटे रहते थे, उनके मल की सुगंधित वायु दस योजन (ल10 योजन लगभग 30 मील (अर्थात 80 किलोमीटर)  तक चारों और के प्रदेश को सुगंधित रखती थी (स्‍कंध 5, अध्‍याय 5)  In general, 1 yojana = 8 miles =  

नोटः जिस पुस्‍तक में हमें यह मिला उसका नीचे फोटूस्‍टेट दिया गया है



भागवत पुराण

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
श्रीमद्भागवत  
भागवत.gif
गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ
लेखकवेदव्यास
देशभारत
भाषासंस्कृत
शृंखलापुराण
विषयश्रीकृष्ण भक्ति
प्रकारप्रमुख वैष्णव ग्रन्थ
पृष्ठ१८,००० श्लोक
भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवलभागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमे कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है, परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता हैं। 


Wednesday, September 28, 2011

वेद और विश्‍व-शांति Vedas and World Peace

1. हमारे चारों ओर दस्यू जाति के लोग हैं वह यज्ञ नहीं करते कुछ मानते नहीं, वह अन्यवृत व अमानुष हैं । हे ‘शत्रु हन्ता इन्द्र तुम इनका वध करो । (ऋगवेद 10-22-8)

2. इन्द्र तुम यज्ञाभिलाषी हो जो तुम्हारी निन्दा करता है उसका धन आहरत करके तुम प्रश्न होते हो, प्रचुरधन इन्द्र तुम हमें दोनों जांगों के बीच छुपा लो, और ‘ शत्रुओं को मार डालो । (ऋगवेद 8-59-10)

3. हे इन्द्र तो समस्त अनआर्यो को समाप्त कर दों । (ऋगवेद 1-5-113)

4. धर्मात्मा लोग अर्धमियों का नाश करने में सदा उधत रहते हैं । (अथर्व वेद 12-5-62)

5. उसकी दोनों आंखे छेद डालो, ह्रदय छेद डालो, आंखे फोड डालो, जीभ को काटो और दांतों का तोड डालो । (अथर्व वेद 5-29-4)

Vedas and World Peace



धर्म के 10 लक्षण- मानधर्म (गीता प्रेस)

अंधविश्‍वास और मुफ्तखोरी सिखाने वाला धर्म किस काम का ? -- प्रयागदत्त पंत 
धर्म के दस लक्षण -  प्रयागदत्त पंत

धर्म की दुहाई देने वाले लोग यहां तक कह डालते हैं क‍ि धर्म ही इस ब्रह्मांड को धारण किए हुए हैं ।  कुछ लोग धर्म के अंतर्गत सिद्धांतों के भी पूरी त‍रह वैज्ञानिक होने का नारा लगा देते हैं यदि ऐसे लोगों से पूछा जाए कि उनकी राय में कौन सा धर्म ब्रह्मांड का भार उठाने और पूर्ण रूप से वैज्ञानिक होने में समर्थ है तो वे अपना ही धर्म बताएंगे । एक और ईसाई धर्मात्‍मा, ईसाई धर्म को ही पूरा बनाएगा और एक मुसलमान धर्मात्‍म इसलाम को सबसे अधिक सच्‍चा धर्म बताएगा, तो दूसरी ओर हिंदू धर्मनिष्‍ठ अपने धर्म को सर्वश्रेष्‍ठ, विशाल, स्‍वतंत्र व पूर्ण बताएगा।

नैतिकता की आड़
लेकिन वास्‍तविकता यह है कि न तो कोई धर्म ब्रह्मांड को धारण किए हुए है और न ही वैज्ञानिक है। धर्म वैज्ञानिक होता तो उस में सैद्धांतिक भिन्‍नता हीन पाई जाती। पर जिन लोगों की हलवापूरी धर्म से निकलती है, वो कैसे इसके ऊलजलूल सिद्धांतों को आसमान में उछाल कर नैतिकता, मानवता या इनसानियत के सिद्धांतों को परदे में डालते हैं और किस प्रकार नैतिक मूल्‍यों की आड़ में शिकार खेल कर अपना उल्‍लू सिधा करते हैं इसका एक उदाहरण है गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित 'मानवधर्म) नामक पुस्तिका, जिसके लेखक है हनुमानप्रसाद पोद्दार।
    इस पुस्तिका का नाम 'मानवधर्म) और प्रकाशन 'गीता प्रस) होना दोनों एकदूसरे की विरोधी बातें क्‍योंकि गीता प्रेस 'हिंदू धर्म) का नमक खाता है, 'मानवधर्म) का नहीं। खैर, जो हो, हमें यह देखना है कि जब किसी धर्म विशेष के पंडित अपने धर्म को मानवमात्र का धर्म घोष्तिक करते हैं तो उनके तर्क कितने वैज्ञानिक होते हैं। हम इस बात पर लेखक के दिए गए शीर्षकों के आधार पर ही विचार करेंगें।
   धर्म की क्‍या आवश्‍यकता है, इस विषय पर लेखक ने अपने कोई मौलिक विचार नहीं दिए। उनके अनुसार धर्म इसलिए आवश्‍यक है कि धार्मिक पुस्‍तकों में इसे आवश्‍यक माना गया है, इन पुस्‍तकों में दिए हुए कारणों में से चार इस प्रकार हैं:
'धर्मः सतां हितः पुंसा धर्मश्‍चैवाश्रयः सताम्,
धर्मल्‍लोकास्‍त्रयस्‍तात प्रवृताः सचराचराः
 धर्म ही सत्‍पुरूषों का हितहै, सत्‍पुरूषों का आश्रय है और चराचर तीनों लोक धर्म से ही चलते हैं ।
'मनुस्‍मृति में लिखा हैः धर्मस्‍तमनु गच्‍छति, 'अर्थात् धर्म ही केवल प्राणी के पीछे पीछे जाता है और मनुष्‍य धर्म की सहायता से कठिन नरकादि से तर जाता है।
  हिंदू धर्मशास्‍त्रों में धर्म का बडा महत्‍व है, धर्महीन मनुष्‍य को शास्‍त्रकारों ने पशु बता है।
   'मनुस्‍मृति) में यह भी लिखा है, 'अधार्मिकाणां पापानामाशु मश्‍यंविपर्ययम्' अर्थात पापी अधर्मियों की शीघ्र ही बुरी गति होती है।
 
उपर्युक्‍त दलील में क्‍या तथ्‍य है? यह तो उसी तरह है जैसे हम कहें कि पेड़ से फल इसलिए भूमि पर टपकता है कि न्‍यूटन ने ऐसी ही लिखा है और जो ऐसी नहीं मानेगा उस की बुरी गत‍ि होगी।
 पर आश्‍चर्य यह है कि इन धार्मिक उपदेशकों की किताबें खूब बिकती हैं और इन पर बडा ध्‍यान दिया जाता है।
मानवधर्म नामक पुस्तिका के लेखक लिंखते हैं:
शास्‍त्रकारों में किसी ने सामान्‍य धर्म के लक्षण आठ, किसी ने 10 किसी ने 12 और किसी ने 15 या 16 या फिर इस से भी अधिक बता हैं। 'श्रीमद् भागवत) के सप्‍तम स्‍कंध में इस सनातन धर्म के 30 लखण बताए गए हैं और वे बडे ही महत्‍व के हैं। विस्‍तार भय से यहां पर उन का वर्णन न कर केवल भगवान मनु के बतलाए हुए धर्म के 10 लक्षणों पर ही कुछ विवेचन किया जाता है। मनु महाराज कहते हैं:
'धृतिः क्षमा दमोस्‍तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः, धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दसंक धर्मलक्षणम्'
'धृत‍ि(धैर्य) क्षमा, दम, अस्‍तेय (चोरी न करना), शौच, इंद्रिय निग्रह ,, घी (बुद्धि) विद्या, सत्‍य और अक्रोध ये 10 धर्म के लक्षण हैं।
 ध्‍यान देने की बात है 'मानवधर्म) के लेखक खुद ही लिखते हैं कि धर्म लक्षणों की संख्‍या में एक ही धर्म के धर्माचार्यों में तिकतना मतभेद है।
 श्रीमदभागवत के 30 लक्षणों को 'बडे ही महत्‍व का) बताते हुए भीधर्म के विवेचन में नहीं लिया गया जब कि मनु महाराज की 10 लक्षणों वाली परिभाषा धर्म की परिभाषा न हो कर सदाचार की परिभाषा है, मनु महाराज के 10 लक्षणों में ईश्‍वर, आत्‍मा, यज्ञ, कर्मकांड, स्‍वर्ग, नरक, पाप, पुण्‍य, पूजा, पाठ, दान, दक्षिणा, ब्राह्मण, शुद्र मोक्ष निर्वाण आदि बातों का तो जिक्र ही नहीं है। बिना मोक्ष, आत्‍मा और ईश्‍वर विषयक बातों के ही कोई शास्त्रों में धर्म कैसे हो सकता है ?10 लक्षणों वाली परिभाषा तो वास्‍तव में नैतिक शास्‍त्र की परिभाषा अधिक जान पडती है।
लगता है, लेखक ने जानबूझ कर इस परिभाषा को इसलिए चुना है कि नैतिकशास्त्र की परिभाषा दे कर जनता से कहा जाए की यही धर्म है और बाद में जो उनके चक्‍कर में पड जाए उसे ईश्‍वर, आत्‍मा, मोक्ष, पूजा, दक्ष‍िणा आदि के फंदे में आसानी से फंसाया जा सके, जैसा कि सभी धर्मों में किया जाता है। धर्म इसी तरह नैतिक मूल्‍यों की आड में शिकार खेलता है। मनु महाराज भ्‍ी इस बात को समझते होंगे। इसी कारण एक ओर तो परिभाषा में ऐसे आकर्षक शब्‍द दिए गए हैं जैसे सत्‍य, धैर्य, क्षमा, विद्या आदि, जिन की ओर हर सज्‍जन व्‍यक्ति ध्‍यान देना चाहेगा, दूसरी ओर इन्‍हीं मनु भगवान(?) ने वर्णश्रम धर्म की व्‍यवस्‍था करके यह तक कह डाला कि यदिशुद भूल कर भी वेदमंत्र सुन ले तो सीसा पिघला कर उसके कान में डाल देना चाहिए। हारी समझ में नहीं आता कि ऐसी व्‍यवस्‍था देते समय 'भगवान' मनु की क्षमा की बात कहां ची गई जो कि 10 लक्षणों में से एक है। उपर्युक्‍त 10 लक्षण धर्म में कहने भर को हैं। धर्म के संदर्भ में इन का अर्थ तोडमरोड दिया जाता है और होता वही है जो आज भी हो रहा है - भ्रष्‍टाचार और अनेतिकता।

लक्षणों में विरोधाभास
मनु महाराज ने 'धृति' को धर्म के लक्षणों में सबसे पहले गिनाया है, जिस का अर्थ 'मानवधर्म' नामक पुस्तिका के लेखक के अनुसार यह हैः 'धैर्य, धारणा, संतोष या सहनशीलता। धैर्य को इतना महत्‍व क्‍यों नहीं दिया गया? संकट पडने पर धैर्य रखना अच्‍छा गुण अवश्‍य है पर धर्म के 10 लक्षणों में पहला हाने का का कारण समझ में नहीं आता। कोई निर्बल या असहाय व्‍यक्ति धैर्य खो बैठे तो क्‍या वह अधर्मी कहलाएगा? जिस प्रकार आजकल सरकार समाजवाद का नारा लगा रही है, पर समाजवाद आ नहीं पा रहा है तो बेचैन प्रजा को धैर्य रखने की सलाह दी जा रही है, उसी प्रकार मनु महारा ने भी धर्म स्‍थापना का नारा दिया होगा और प्रजा जब बहुत उतावली हो गई होगी तो धैर्य रखने की बात को धर्म का प्रथम लक्षण बताना पडा होगा ।

धर्म का दूसरा लक्षण 'क्षमा' बताया गया है। लेकिन स्‍पष्‍ट नही किया गया कि क्षमा को धर्म का लक्षण बताने की क्‍या आवश्‍यकता है? हमारी समझ से क्षमा का उपरयोग तो बहुत ही सीमित रूप में होना चाहिए। क्‍या चोर, डाकू, खूनी जैसे अपराधियों को क्षमा कर दिया जाए? और क्षमा न्‍यायालय या राष्‍ट्रपति के हाथ में हो अथवा हर आदमी पहले ही क्षम कर दे? फिर क्‍यों न पांडवों ने कौरवों को क्षमा कर दिया? क्‍यों इस बात की प्रतीक्षा की जाए की अपराधी क्षमायाचना करे? यदि क्षमा ही धर्म है तो किसी की क्षमा याचना की प्रतीक्षा कराने से पहले ही क्षमा क्‍यों न कर दिया जाए? क्‍यों रामचंद्रजी ने सीता को क्षमायाचना करने का भी अवसर नहीं दिया? क्‍यों खुद 'भगवान' मनु के अनुसार पापियों और अधर्मियों को भगवान बुरी गति करता है? क्‍या पांडव, रामचंद्रजी व भगवान अधर्मी थे जो उन्‍हों ने तथा कथित अपराधियों को क्षमा नही किया? दुष्‍कर्म का उचित दंड देने में क्‍या अधर्म है? फिर उचित दंड से सुधार भी तो हो सकता है और फिर हिंदू धर्म तो जानता ही है कि शरीर 'मिथ्‍या' और आत्‍मा 'सत्‍या' है, दंड तो शरीर को दिया जाता है, 'आत्‍मा' को तो कोई दंडित कर ही नहीं सकता, यदि यही बात है तो कुकर्म करने वाले के 'मिथ्‍या' शरीर को उचित दंड देने में क्‍या अधर्म है?

मनु महाराज का तीसरा लक्षण है 'दम' दम का साधारण अर्थ इंद्रिय दमन समझा जाता है। पर इस श्‍लोम में भगवान मनु ने इंद्रिय  निग्रह को अलग लिखा है, इस लिए यहां 'दम' का अर्थ मन का निग्रह करना समझा जाता है, मन ही एक एसा पदार्थ है जो सतत जगत के अस्तित्‍व को सिद्ध करता है और माया से मोहित मनुष्‍य को विषयों के प्रबल बंधन में बांध देता है जो मन को जीत लेता है वह अनायास ही जगत को जीत लेता है, पर मन है बडा चंचल और हठीला, अभ्‍यास और वैराग्‍य से सही इस का निरोध होता है आदि।
उपर्ययुक्‍त बात से यह स्‍पष्‍ट नहीं होता कि मन का निग्रह करना और इंद्रियों का निगह करना दो अलग अलग लक्षण क्‍यों माने गए हैं ? क्‍या मन का निग्रह कर के इंद्रियों का निग्रह अपने आप ही नहीं हो जाएगा? यह भी स्‍पष्‍ट नहीं कि 'मन को जीतने' और जगत को जीतने का क्‍या अर्थ है? मानधर्म यदि किसी एक मानव का नाम उदाहरण के तौर पर दे देता तो समझने में आसानी होती। हम किस का उदाहरण लें ? सिकंदर के विषय में यह सोचने का प्रश्‍न ही नहीं है कि उस ने मन का निग्रह किया होगा। जगत को भी वह पूरा नही जीत सका। महात्‍मा गांधी ने कदाचित मन का निग्रह किया हो, पर जगत जीतना तो दूर की बात, वह भारत का विभाजन नहीं रोक सके, मिस्‍टर जिन्‍ना और अपने हत्‍यारे का कन नहीं जीत सके। तब जगत जीतने जैसी बातें कह कर क्‍यों तिल का ताड बनाया जाता है? यह ठीक है कि 'सादा जीवन और उच्‍च विचार' का आदर्श अपनाकर इच्‍छज्ञओं को नियंत्रित करना अच्‍छी बात है, पर 'अनायास ही जगत जीतना जैसी बात कहना क्‍या मिथ्‍या भाषण नहीं है? मान लिया जाए कि जगत भी जीता जा सकता है तो क्‍या इसके लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नही होगी जो 'अनायास ही' कह दिया गया है?

मंत्रों को आधरहीनता
मनु महाराज के अनुसार धर्म का चौथा लक्षण 'अस्‍तेय' अर्थात चोरी न करना और पांचवा लक्षण है 'शौच' अर्थात सफाई रखना। 'मानवधर्म' नामक पुस्तिका में टीका करते हुए लेखक ने साबुन के प्रयोग को अवांछित और 'मृत्तिका' यानि मिट्टी और 'गोमय' यानी गोबर और गोमू्त्र के प्रयोग को अति उत्तम' बनाया है। हमें नहीं मालूम कि लेखक महोदय अपने कपडे मिट्टी से धोते हैं या गोबर और गोमू्त्र से, पर ऐसे लोगों के पुराने सौंदर्य प्रसाधन जैसे शरीर पर भस्‍म मलना, चावल पीस कर लगाना, हवन से कचा कोयला पोतना और भगवा वस्‍त्रधारी संतों के पांवों की धोवन पी जाना कदाचित 'शौच' के उत्तम उपाय होंगे, तथाकथित संतों की यही कामना रहती है कि जहां चले जाएं वहां उनके भक्‍त लोग 'चरणामृत' पीने को तैयार बैठे रहें पर लेखक महोदय ने 'शौच' का जो सतर्वोत्तम उपाय बता है, वह है यह मंत्रः
'अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्‍थां गतोपिवा
यः स्‍मरेत्‍पुण्‍डरीकांक्ष सः वाहमभ्‍यंतरः शुचिः'
कितना सस्‍ता उपाय है। केवल मंत्र पढ दिया और बाहर भीतर की सर्वोत्तम 'ड्राइक्‍लीनिंग' हो गई। न साबुन पानी की आवश्‍कता, न नहाने धोने का कष्‍ट और न धोबियों व भंगियों में पैसे का दुरूपयोग। मंत्र का भावार्थ यह हैः
'आदमी चाहे गंदा हो, चाहे साफ, चाहे सभी (गंदी) अवस्‍थाओं से गुजर रहा हो, जो कमल जैसी आंखों वाले को याद कर ले, वह बाहर भीतर दोनों ओर से पवित्र है।'
धर्म के छठे लक्षण 'इंद्रिय निगह' के विषय में पहले ही कहा जा चुका है, जब घी (बुद्धि‍) को सातवां लक्षण माना ही गया है तब उसी से मन का दमन व इंद्रियों निग्रह हो सकता है। लक्षणों की संख्‍या व्‍यर्थ ही बढने से क्‍या लाभ, वैसे ये विषय मनोविज्ञान के हैं। मनोविज्ञान में इच्‍छाओं को उचित मार्ग पर ले जाने का काम मस्तिष्‍क का बताया गया है। फिर भी मनु को मनोविज्ञान के अनुसार ठीक न होने का दोष नहीं दिया जा सकता क्‍योंकि जिस युग में मनु महाराज हुए, उस युग में उन से आधुनिक मनोविज्ञान का ज्ञाता होने की आशा नहीं की जा सकती थी। हमारी शिकायत तो उन तथाकथित संतो से है जो आज भ्‍ी किसी बात की परख उन सिद्धांतों के आधार पर करते हैं जिन का निर्माण प्रागैतिहासिक काल में हुआ था।
 धर्म का सातवां लक्षण धी अर्थात बु्द्धि‍ बताया गया है। किसी प्रश्‍न को कोई मस्तिष्‍क कितनी जल्‍दी और कितनी सही सही सुलझा सकता है यह बात बुद्धि‍ (इंटैलीजेंस) पर निर्भर करती है, बुद्धि‍ हमारे मस्तिष्‍क के अनेक गुणों में से एक है। हय घटती बढती नहीं। मंदबु‍द्धि‍ बालक बडा हाने पर मंदबु‍द्धि‍ मनुष्‍य ही बनेगा। ज्ञान बढाया जा सकता है पर बु्द्धि‍ बढाई नहीं जा सकती। यह बात मनोविज्ञान ने सिद्ध कर दी है। इस लिए धी अर्थात बुद्धि‍ को धर्म का एक लक्षण मानना उतिच नहीं, क्‍योंकि जिस पर मनुष्‍य का वश ही नहीं उस के लिए उसका धर्म क्‍यों परखा जाए? क्‍या मंदबु‍द्धि‍ मुनुष्‍य को कम धार्मिक कहा जाएगा? हमारी समझ से मंदबु‍द्धि‍ मनुष्‍य ही पूर्ण धार्मिक होता है क्‍योंकि वह धर्म द्वारा प्रतिपादित अंधविश्‍वास को तुरंत ग्रहण करता है।
धर्म का आठवां लक्षण है 'विद्या' यह तो बहुत सुंदर बात है वि विद्या प्राप्‍त करना धर्म का लक्षण बताया गया है, पर ये तथा‍कथति विद्वान पंडित व संतमहात्‍मा विद्या का अर्थ भी तोडमरोड कर पेश करते हैं । वे कहते हैं
'अध्‍यात्‍मविद्या विद्यानाम' अर्थात जैसे श्रीकृषण्‍ ने अपने को सभी मानवों में श्रेष्‍ठ बताया है, उसी प्रकार अध्‍यात्‍म विद्या सभी विद्याओं से श्रेष्‍ठ है 'मानवधर्म के लेखक लिखते हैं
' विद्या शब्‍द से यहां अध्‍यात्‍म विद्या लेनी चाहिए। आजकल सि को विद्या कहते हैं और जिस की प्राप्ति के लिए विद्यालयों का विस्‍तार हो रहा है वह तो अधिकांश में घोर अविद्या है। जो ईश्‍वर के अस्तित्‍व पर अविश्‍वास उत्‍पन्‍न कर देती है। ऐसी विद्या से तो सर्वथा बचना ही श्रेयस्‍कर है।'
ऐसा लगता है ज्‍यों ज्‍यों शिक्षा का प्रसार हो रहा है और जनसाधारण के विचारों का स्‍तर ऊंचा हो रहा है गीता प्रेस को खतरा मालूम पड रहा है क्‍योंकि फिर मानवधर्म जैसी पुस्‍तकें खरीदेगा कौन?

परब्रह्म की आड़
जिस लक्षण का नंबर सब से पहले आना चाहिए था। मनु महाराज ने उसे नवां नंबर दिया है। उस पर भी 'मानवधर्म' जैसी पुस्‍तकें जब सत्‍य की व्‍याख्‍या देती हैं तो यह कह कर फुरसत पा लेती है कि परब्रह्म ही सत्‍य है। 'सत्‍य का रूप' या तो 'परब्रह्म' ले लेता है या 'सत्‍यनारायण' में समा जाता है। यह 'परब्रह्म' एक ऐसा मोटा परदा है जो सभी नैतिक आदर्शों को ढक लेता है। तब धार्मिक पुस्‍तकें व पुरोहति लोग सत्‍य के नाम पर भी पाखंड का ही प्रचार करते हैं। 'मानवधर्म' में सत्‍य का आचरणकरने की और कम, सत्‍य के नाम पर घर्म, तप, योग, यज्ञ और सनातन ब्रह्म की पूजा की ओर अधिक ध्‍यान दिलाया गा है।
सत्‍य भाषण्‍ के संदर्भ में एक कथा दी गई हैं। यह कथा एक 'श्रषिकुमार' की है। इस लिए लोग उन्‍हें 'सत्‍यव्रत' की उपाधि से संबोधित किया करते हैं। इस तरह की उपाधि की बात से ऐसा लगता है कि उस समय बाकी सभी लोग मिथ्‍या भाषण इतमीनान से कर लेते होंगे। खैर, जो हो, श्रषिकुमार सत्‍वव्रतजी से एक शिकारी पूछता है कि क्‍या उन्‍होनं ने एक घायल सूअर देखा (जो कि तीर से घायल हो कर उसी ओर भागा था) तो इस प्रश्‍न पर श्रषिकुमार सत्‍यव्रत का सत्‍य डगमगाने लगता है। सूअर की हत्‍या के पाप के भय से वह डर जाते हैं। उन में यह कहने का सहस भी नहीं
है कि वह नहीं बताएंगे। तब वह ऐसा गोलमाल उत्तर देते हैं कि एक चालाक तस्‍कर व्‍यापारी भी उन की हाजिर जवाबी का लोहा मान लेगा। सत्‍यव्रत साहब का उत्तर सुनिएः
'या पश्‍यति न सा बूते,
या बूते सा न पश्‍यति।
त्र्योहो व्‍याध स्‍वकायथिन्
कि पृच्‍छसि पुनः पुनः'
  जो (नेत्र शक्ति) देखती है व बोल नहीं सकती। जो (वाक् शक्ति) बोल सकती है वह देख नहीं सकती अतएव, है स्‍वार्थी वयाध, तू मुझ से बारबार क्‍या पूछता है?
हम सतझते हैं कि बयान बदलने या झूठी गवाही देने के पाप से बचने या सचाई को छिपाने वाले गवाह अब इसी युक्ति से काम लेंगे। वकील जब प्रश्‍न करेगा 'क्‍या कत्‍ल उनके समाने हुआ' तो गवाह कह देगा 'मेरा मुह देख नहीं सकता, आंखें कह नहीं सकती, अरे मुर्ख वकील तू बारबार क्‍या पूछता है?
एक स्‍थान पर धर्मसंकट की उपस्थिति कीबात पर 'मानवधर्म' के लेखक लिखते हैं
'ऐसे स्‍थ्‍लों में कहीं कहीं मिथ्‍या भाषण की भी आज्ञा मिलती है'
यह है सत्‍य का वह आदर्श रूप जो मानधर्म सभी मानवों के लिए निर्धारित करना चाहता है। यह अंतिम अर्थात दसवां लक्षण है। इस का अर्थ है क्रोध न करना। जब मन को वश में करने की बात आ ही चुकी है तो इस नकारात्‍मक आदेश का अलग लक्षण गिनना अनावश्‍यक है।
मनु महाराज के 'धर्म के 10 लक्षण' उपर्युक्‍त हैं। इन लक्षणों में जहां अनावश्‍यक रूप से संख्‍या वृद्धि‍ की बात खटकती है, उस से भी अधिक वहां यह बात अखरती है कि धर्म के लक्षाणें में 'प्रेम और कर्त्तव्‍यपरायणता' जैसे उच्‍च आदर्शों को कोई स्‍थान नही ंदिया गया है। नैतिकता के आधार स्‍तंभ दो हैं सत्‍य और प्रेम। कर्त्तव्‍यपरायणता रूपी भवन इन पर खडा होता है। बिना प्रेम संबंधों की स्‍थापना और बिना कर्त्तव्‍यपालन की भावना के कोई समाज टिक नहीं सकता।

लक्षणों की भरमार
मनु महाराज ने बडी खूबसूरती से जहां धर्म की परिभाषा को नैतिकता की परिभाषा से बदलने की चेष्‍टा की है, वहीं उन्‍होंने नैतिकता की परिभाषा भी अपूर्ण और अशुद्ध दी है। मनु महाराज का धर्म नागरिकताका पाठ न पढा कर सब को 'बाबाजी' बन जाने की प्रेरना देता है। फर ऊपर से, इस की जो व्‍याख्‍या 'मानवधम' जैसी अनर्गल पुस्‍तकें करती हैं उनसे नैतिकता की भावनाओं का पूर्णरूपेण सफाया हो जाता है।
यही बात दूसरे धर्मों में भी होती हैं, भारत में चू‍कि कई धर्म हैं, इस लिए अनैतिकता यहां अन्‍य देशों से अधिक है, हमारे देश में जनता आलसी, स्‍वार्थी, मुफ्तखोर, अंधविश्‍वासी और मूर्ख हैं, उतने दूसरे देशों में नहीं। यहां की धार्मिक पुस्‍तकों और उनकी व्‍याख्‍या करने वाले ढोंगियों ने हमें सदा दिशाहीन बना कर धर्म की भूलभुलैया में भटकाया है जिसका परिणाम यह हुआ कीहम हर क्षेत्र में पिछड गए।

साभारः
सरिता, अप्रैल-।।, 1972







Saturday, September 24, 2011

सागरों की उत्‍पत्ति महाभागवत पुराण के अनुसार Hindu-vigyan-Geography

समुद्रों की उत्पत्तिः भागवत महापुराण के अनुसार

अगर आप यह जानना चाहें कि सागर और द्वीप कैसे बने तो भागवत का निम्‍न 
उद्धण देखिएः
ये वा उ ह तद्रथचरणनेमिकृतपरि- खातास्‍ते सप्‍त सिंधव आसन् यत एव कृताः सप्‍त भुवो द्वीपाः
(स्‍कंध 5, अध्‍याय 1-31)

((( राजा प्रियव्रत के रथ के पहियों से जो लीक बनी, वे ही गढे सात सागर बन गए, इन्‍हीं के कारण सात द्वीप हो गए)))

बडे बडे वैज्ञानिक सागरों और द्वीपों की रचना के विषय में प्रत्‍यक्ष और अनुमान के घोडे दौडाते दौडात थक जाते हा, पर भागवत कार ने सह समस्‍या कितनी सरलता से सुलझा दी !

भागवत पुराण

मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
श्रीमद्भागवत  
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गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ
लेखकवेदव्यास
देशभारत
भाषासंस्कृत
शृंखलापुराण
विषयश्रीकृष्ण भक्ति
प्रकारप्रमुख वैष्णव ग्रन्थ
पृष्ठ१८,००० श्लोक

भागवत पुराण
 हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवलभागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमे कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है, परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता हैं। 




1.2 Mt. Meru 100,000x higher than Mt. Everest

Arya texts of a comparatively late period ( 5 century AD ) still maintain a belief in the fictional Vedic Mt. Meru. It is supposed to be one hundred thousand times higher than Mt. Everest! Regarding this mountain, the Matsya Purana says,
"It [Mt Meru] is golden and shining like fire. The colour of the eastern side is white like the colour of Brahmans, that of the northern side is red like the that of Kshatriyas, the southern is yellow like that of Vaishyas, the western is black like the colour of Sudras. It is 86000 yojana high, and 16000 of these lie in the earth. Each of the 4 sids has 34000 yojanas ... There are beautiful golden houses inhabited by spiritual beings, the Devas, by the singers the Gandharvas and their harlots the Apsaras. Also Asuas, Daityas and Rakshasas are living in it. " 
-- [ Matsya Pur. quoted in al-B. i.247 ]

In general, 1 yojana = 8 miles = 32000 yards and 1 kroh = 1/2 yojana [ al-B i.167 ]. Thus Mt. Meru would be 8x86,000 = 704,000 miles high. Mt. Everest, by comparison, is only 29,000 ft., or less than 6 miles, high. Hence Mt. Meru is 100,000 times higher than Mt. Everest !
The Kurma Purana has this to say on this topic," Earth, composed of seven continents, together with the oceans extends 500,000,000 yojanas across. Holy Jambudvipa lies in the middle of all the continents; in its center is said to be lofty Mt. Meru, bright as gold. Its height is 84,000 yojanas, and it extends 16,000 yojanas below the earth; its width at the top is 32,000 yojanas, and its diameter at the base is 16,000 yojanas." 
-- [ Kurma Purana, quoted in Classical, p. 52 ]
The impossibly high Mt. Meru is held to be the source of really existing rivers in India such as the Sita:
" Ganga, the heavenly river flowing from the feet of Visnu and inundating the orb of the moon, falls all around the city of Brahma. Falling on the four regions, O twice-born ones, she subdivides into four rivers, namely Sita, Alakananda, Sucaksus and Bhadra. The river Sita flows from the atmosphere east of Mt. Meru and then through the eastern range called Bhadrasva to the sea. And each of the others does likewise: Alakananda to the South enters Bharatavarsa; Sucaksus to the West falls on Ketumala, and Bhadra to the North falls through Uttarakuru..." -- [ Kurma Purana, in Classical, p. 54 ]
The scripture then describes nine different subcontinents, of which one (Bharatavarsa) includes or is the same as India. Eight of the subcontinents are populated by people who live paradisial lives. Their lifespans are 10,000 years apiece or more and their diet consists of sweet foods like bread-fruit and sugarcane. By contrast,
" In Bharatavarsa women and men display diverse colors, worship various gods and perform many different duties. The full length of their lives is said to be a hundred years, O virtuous ones. They consume all kinds of food and live their lives according to virtue or vice... In these eight subcontinents, Kimpurusa and the others, O great sears, there is neither sorrow nor weariness, and no anxiety, hunger, or fear. And the people, healthy, unoppressed, free from all cares, ever youthful, all enjoy themselves in various ways. Only in Bharatavarsa, the wise say, and nowhere else, occur the four Ages: Krta, Treta, Dvapara and Kali." 
-- [ Kurma Purana, in Classical, p. 54 ]
Of these nine [lands], it is in Bharat-varsha only that there are sorrow, weariness, and hunger; the inhabitants of other varshas are exempt from all distress and pain, and there is in them no distinction of yugas. Bharata is the land of works, where men perform actions, winning either a place in Heaven, or release; or, it may be, rebirth in Hell, according to their merit. Bharata is, therefore, the best of Varshas; other varshas are for enjoyment alone. Happy are those who are reborn, even were they gods, as men in Bharat-varsha, for that is the way to the Supreme. [ Coom 396 ]

Thursday, September 22, 2011

पृथ्‍वी उत्‍पत्ति हिन्‍दू धर्म ग्रंथों के अनुसार





The earth is repeatedly held to be flat. Near Baroda, Gujarat, is situated the Jambudvip institute that was set up to try to prove the Jain and Arya-Vaishnava belief that the Earth is flat.

  • Flat Earth . The earth was universally held to be flat.
  • Earth-Serpent . The earth is supported by a 1000-headed serpent.
  • Wine Sea . The earth floats in a sea of wine
  • Demonic Eclipses . 2 demons swallow the Earth and Moon, leading thereby to eclipses.
  • Trillion-Year-Old Universe . The universe is 26 trillion years old as per the numbers cooked up by some rishi.
  • 700,000 mile Mt. Meru . Mt Meru is 100,000 times higher than Mt. Everest.
  • Dung Medicine . Ayurvedic medicine contains urine and dung of various animals as ingredients.
  • Alcohol Universe . The universe is filled with alcohol.


A whole set of nonsense is propagated in the Vedas and Puranas :
  • The wind drives the stars around the pole according to the Vayu Purana [al B i 241]
  • The Pancavimsa Brahmana wanted to measure the distance between heaven to Earth by imagining 1000 cows placed on top of each other [ S & T xvi.8.1 and xxi.19 ].
  • Sun journeys from east to west in a chariot drawn by 7 horses [ Panda 69 ].
  • Moon came out after the ocean was churned by the devas and demons [ Panda 69 ].
  • 27 stars = 27 wives of the moon [ Panda 69 ].
  • 2 demons Rahu and Ketu swallow the Sun and moon periodically, leading to eclipses.

Thanks